“ये कैसा नारी सशक्तिकरण?” – जब प्रेम हत्या बन जाए और शक्ति भटक जाए
नारी सृजन की आधारशिला है — वह जन्म देती है, पोषण करती है, और सहनशीलता से समाज को दिशा देती है।
लेकिन जब वही नारी प्रेम की आड़ में हत्या का मार्ग चुन ले, तो प्रश्न उठता है —
क्या यह सशक्तिकरण है, या संस्कारों का पतन?
हाल ही की दो घटनाएं समाज के माथे पर कलंक बनकर उभरी हैं।
एक महिला ने अपने पति को प्रेमी के साथ मिलकर मौत के घाट उतार दिया और शव को ड्रम में छिपा दिया।
दूसरे मामले में ‘सोनम-राज कांड’ ने पूरे देश को झकझोर दिया — जहाँ शादी के बाद भी एक महिला ने अपने प्रेमी संग पति की हत्या कर दी।
इन घटनाओं का मूल कारण केवल ‘सशक्तिकरण’ नहीं, बल्कि संस्कारविहीन प्रेम, कर्तव्यहीनता और संयम का अभाव है।
प्रेम, जब त्याग से हटकर स्वार्थ और वासना में डूब जाए, तो वह प्रेम नहीं रह जाता — वह केवल एक भ्रम बनकर रह जाता है।
और जब वह भ्रम टूटता है, तब समाज को केवल राख, खून और अपराध ही दिखाई देता है।
क्या यही वह नारी है, जिसे हम शक्ति कहते हैं?
या यह उस शिक्षा और उन संस्कारों की विफलता है, जो उसे दिशा नहीं दे पाए?
आज के दौर में माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा तो दे रहे हैं, पर शायद संस्कार नहीं।
मॉडर्न बनने की होड़ में हम बच्चों को तकनीक सिखा रहे हैं, मगर नैतिकता और आत्म-संयम का पाठ नहीं पढ़ा रहे।
लड़की को सशक्त बनाना ज़रूरी है, लेकिन क्या उसे अपने कर्तव्यों और सीमाओं का बोध कराना भी ज़रूरी नहीं?
सशक्तिकरण का अर्थ यह नहीं कि महिला किसी के जीवन का निर्णय स्वयं करने लगे —
वह भी हत्या के रूप में।
कोई भी सशक्त महिला तब तक आदर्श नहीं बन सकती, जब तक उसमें दया, न्याय और संवेदनशीलता का भाव न हो।
इसी विषय से मिलती-जुलती और भी घटनाएं सामने आई हैं —
जैसे दिल्ली की एक युवती ने प्रेमी संग मिलकर अपने पति को चलती ट्रेन से धक्का दे दिया।
कहीं पत्नी ने अपने ही बच्चों के सामने पति की हत्या कर दी।
इन घटनाओं में सिर्फ हत्या नहीं हुई —
मरे हुए पति के साथ-साथ नारीत्व की गरिमा, संस्कारों की आत्मा, और समाज का विश्वास भी दम तोड़ गया।
हमारे ग्रंथों में नारी को लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा कहा गया है —
पर क्या आज की नारी उन रूपों से दूर जा रही है?
हमें फिर से मूल्यों की ओर लौटना होगा।
माता-पिता को बच्चों को केवल “पढ़ाने” से आगे बढ़कर उन्हें “संवेदनशील बनाने” की ज़िम्मेदारी निभानी होगी।
वरना ये अपराध सिर्फ घटनाएं नहीं होंगे — ये हमारी सामूहिक असफलता बन जाएँगे।
सशक्तिकरण का अर्थ शक्ति प्राप्त करना नहीं,
बल्कि उस शक्ति को सही दिशा में चलाना है।
*स्वरचित लेख* :
नेहा वार्ष्णेय
दुर्ग (छत्तीसगढ़)