नेपाल में खड़ग प्रसाद शर्मा ओली के नेतृत्व में नई गठबंधन सरकार का गठन हो गया है। सोमवार को ओली ने चौथी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।
पिछले दिनों नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेरबहादुर देउबा और सीपीएन (यूएमएल) के अध्यक्ष ओली के बीच नई गठबंधन सरकार बनाने के लिए समझौता हुआ था। समझौते के बाद पुष्प कमल दहल ‘प्रचंडÓ की सरकार का जाना सुनिश्चित था। नेपाल पिछले कई वर्षो से राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है।
वास्तव में वह संसदीय लोकतंत्र की एक विडंबना का भी सामना कर रहा है कि संसद में हासिल प्रचंड बहुमत कभी-कभी राजनीतिक स्थिरता की बजाय अस्थिरता पैदा करता है। दिसम्बर, 2017 के संसदीय चुनाव में सीपीएन (यूएमएल) और माओवादी सेंटर, दोनों ने मिल कर चुनाव लड़ा था और 275 सदस्यीय सदन में 174 सीटें जीतने में सफल हुए थे लेकिन आगे चलकर इस सरकार का भी पतन हो गया।
अक्सर राजनीतिक नेताओं की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के कारण ऐसा होता है। आम धारणा के विपरीत विचारधारा या कैडर आधारित पार्टियां भी लोकतंत्र की इस बीमारी से मुक्त नहीं हैं। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टियां उदारवादी लोकतंत्र को ‘बुर्जुवा लोकतंत्रÓ कहती हैं। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि वर्ग संघर्ष में विश्वास करने वाली राजनीतिक पार्टियां नेपाल में सत्ता-संघर्ष में उलझ गई हैं।
दो दिग्गज कम्युनिस्ट नेताओं ओली और प्रचंड की लड़ाई राजनीतिक अस्थिरता का कारण बन रही है। नई सरकार के सामने देश में राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने की कठिन चुनौती है। राजनीतिक अस्थिरता देश के आर्थिक संकट को बढ़ा सकती है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाओं ने चेतावनी दी है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सुधारवादी कदम नहीं उठाए गए तो नेपाल आर्थिक संकट के भंवर में फंस सकता है।
ओली चीन समर्थक माने जाते हैं। उनके पिछले शासन के दिनों में भारत के संबंध नेपाल के साथ कटु हो गए थे। प्रधानमंत्री मोदी ने नये नेपाली प्रधानमंत्री ओली को बधाई दी है। वस्तुत: भारत और चीन, दोनों पड़ोसी देश नेपाल में अपने अनुकूल सरकार चाहते हैं। लेकिन नेपाल के वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता के दौर को हल करने में इन दोनों की भूमिका निर्णायक साबित नहीं हो सकती। देश में राजनीतिक स्थिरता के लिए वहां के शीर्ष नेताओं को ही आगे आना होगा।
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