तवील अर्से के बाद एक नयी ग़ज़ल आप की समाअतों के हवाले………….
अब उस के चेहरे पर भी डर दिखायी देने लगा,
बुझा बुझा सा वो अक्सर दिखायी देने लगा।
बुलंदियों पे जिसे नाज़ था बहुत अपनी,
वही मकान अब जर जर दिखायी देने लगा।
ख़ुदा का ख़ौफ़ न इश्क़-ए-रसूल सीने में,
यही माहौल अब घर घर दिखायी देने लगा।
वही जो भागता फिरता था देख कर मुझ को,
वही क़रीब अब अक्सर दिखायी देने लगा।
वही जो ख़्वाब दिखाता था दोस्ती का मुझे,
उसी के हाथ में ख़ंजर दिखायी देने लगा।
हर एक सम्त लहू,चीख़,धुआँ,जलते मकां,
ख़ुदाया फिर वही मंजर दिखायी देने लगा।
नदीम ने ज़रा हक़ पर ज़ुबान क्या खोली,
हर एक हाथ में पत्थर दिखायी देने लगा।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर।