शीर्षक-उलझा हुआ सा लगता है
खोए खोए से हैं जाने क्या हो गया सा लगता है
वक्त ठहरा है मन कुछ बहका हुआ सा लगता है।
कहीं ऐसा तो नहीं दबे पैर तेरी कोई याद चली आई हो
लव खामोश है दिल कुछ बेचैन हुआ सा लगता है।
अभी तो सफर शुरू हुआ था कुछ कदम ही चले थे
पर जाने क्यों आज कारवां ठहरा हुआ सा लगता है ।
तेरे दिए जख्मों को अभी तो सहलाया भी नहीं था
पर आज हर जख्म कुछ गहरा हुआ सा लगता है।
ये सच है बेकसी में तू रुलाया करता है
पर आज दर्द कुछ उफना हुआ सा लगता है।
तू क्या जाने वफा के अलाव के बारे में
तेरी बेरुखी से मन ठिठुरा हुआ सा लगता है।
अरमानों के समंदर में कुछ ख्वाबों के जजीरे देखे थे
पर आज हर अरमान क्यों सहरा हुआ सा लगता है।
बिखरे हुए ख्वाबों की कड़ियां जोड़ जोड़ कर हारे हैं
आज इन कड़ियों में मन उलझा हुआ सा लगता है।
स्वप्रमाणित मौलिक रचना
श्रीमती प्रियंका मिश्रा
ग्वालियर मध्य प्रदेश।