ओ३म्
-वैदिक साधन आश्रम तपोवन गुरुकुलम् में नये ब्रह्मचारियों के उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न-
‘वैदिक संस्कारों को यदि देश व समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी तो देश व समाज की प्रमुख समस्यायें दूर हो सकती हैं: आयार्य धनंजय’
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वैदिक साधन आश्रम तपोवन में इस वर्ष एक नया गुरुकुल ‘वैदिक साधन आश्रम तपोवन गुरुकुलम्, देहरादून’ आरम्भ किया गया है। इस गुरुकुल के 9 नये ब्रह्मचारियों के आज उपनियम एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न किये गये। यह संस्कार आश्रम की लगभग 76 वर्ष पुरानी भव्य यज्ञशाला एवं उसके साथ जुड़े सत्संग-सभागार परिसर में सम्पन्न किये गये। संस्कार गुरुकुलम् के आचार्य आचार्य रवीन्द्र कुमार शास्त्री एवं आर्य पुरोहित पं. वेदवसु शास्त्री जी ने मिलकर सम्पन्न कराये। कार्यक्रम अत्यन्त भव्य, मनोरम एवं दर्शनीय था। संस्कार सम्पन्न होने के बाद भजन एवं उपदेशों का कार्यक्रम हुआ। एक भजन पं. वेदवसु शास्त्री जी का हुआ। इसके पश्चात गुरुकुल के आचार्य ताराचन्द शास्त्री जी ने ब्रह्मचारियों एवं श्रोताओं को सम्बोधित किया। देहरादून की प्रसिद्ध भजन वा गीत गायिका ऋषिभक्त श्रीमती मीनाक्षी पंवार जी भी इस संस्कार समारोह में सम्मिलित थी। उन्होंने एक भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘प्रभु सारी दुनिया से ऊंची तेरी शान है, कितना महान् है वो कितना महान् है।’ इस भजन के बाद द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल देहरादून की आचार्या अन्नापूर्णा जी ने अपने सम्बोधन में कहा यह हमारे लिए बहुत हर्ष का विषय है कि यहां 9 नये ब्रह्मचारियों का उपनयन संस्कार एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न हुआ है। उन्होंने कहा कि जब तक देश में वेद विद्या का प्रचार व प्रसार नहीं होगा हमारे राष्ट्र की उन्नति एवं कल्याण नहीं होगा। आचार्या जी ने ब्रह्मचािरयों एवं श्रोताओं को यज्ञोपवीत का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि ब्रह्मचारी एवं अन्य बन्धु जो यज्ञोपवीत धारण करते हैं उन पर वेदाध्ययन करने एवं वेद के अनुसार आचरण करने का उत्तरदायित्व आता है। आचाार्या जी ने कहा कि ब्रह्मचर्य व्रत का धारण यज्ञोपवीत को धारण करने से आरम्भ होता है। आचार्या जी ने देशभक्त बलिदानी रक्तसाक्षी भगत सिंह जी की चर्चा कर बताया कि उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी ने भगत सिंह का आर्यसमाज के पुरोहित पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी से यज्ञोपवीत संस्कार कराया था। उन्होंने कहा कि इसका प्रभाव देशभक्त भगत सिंह जी के जीवन पर पड़ा और उन्होंने जीवन भर यज्ञोपवीत धारण करने वाले वेदानुयायी के अनुरूप देशभक्ति के आदर्श कार्यों को किया। आचार्या जी ने ब्रह्मचारियों को मेखला धारण कराये जाने का महत्व भी बताया और कहा कि इससे ब्रह्मचारियों का जीवन तपस्वी जीवन बनता है। आचार्या अन्नपूर्णा जी ने गुरुकुलीय शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला और गुरुकुलीय शिक्षा को आधुनिक शिक्षा से उत्तम बताया।
आचार्या अन्नपूर्णा जी ने कहा कि ईश्वर को प्राप्त करना व कराना एवं संसार का कल्याण करना गुरुकुलीय शिक्षा और आर्यसमाज का लक्ष्य है। उन्होंने कहा कि जो मनुष्य सुख चाहता है उसको विद्या प्राप्त नहीं होती। आचार्या जी ने कहा कि तपस्वी जीवन व्यतीत करना उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक होता है जो विद्या को प्राप्त करना चाहते हैं। गुरुकुल के ब्रह्मचारियों का जीवन तपस्या से परिपूर्ण होता है। वह प्रातः 4.00 बजे से उठकर रात्रि शयन समय 10.00 बजे गुरुकुल वा आचार्यकुल में रहकर विद्या प्राप्ति के लिये कठोर तप करते हैं। आचार्या जी ने यह भी कहा कि बिना अनुशासन से युक्त जीवन के मनुष्य का जीवन नहीं बनता है। हमें अपना व सब देशवासियों का वैदिक गुणों से युक्त अच्छा जीवन बनाना है। आचार्या जी ने यह भी कहा कि संसार में सभी आत्माओं को मनुष्य का जन्म वा जीवन नहीं मिलता। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें परमात्मा से मनुष्य का जीवन मिला है।
आचार्या अन्नपूर्णा जी ने कहा कि ब्रह्म वा ईश्वर को ज्ञान वा विद्या से ही प्राप्त किया जा सकता है। अविद्या व विपरीत ज्ञान से मनुष्य बन्धनों व दुःखों में फंसता है। आचार्या जी ने सभी ब्रह्मचारियों को अपना अपना जीवन महान् बनाने की प्रेरणा की। आचार्या जी ने सान्दीपनी आश्रम में कृष्ण एवं सुदामा के जीवन के प्रसंगों की चर्चा की और उन्हें बड़े मार्मिक शब्दों में नये ब्रह्मचारियों और श्रोताओं को सुनाया। आचार्या जी ने बताया कि वैदिक गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा में ब्रह्मचारियों का चित्त आचार्य के चित्त के सर्वथा अनुकूल बनता है। उन्होंने कहा कि अपने आचार्य की आज्ञा का पालन करना प्रत्येक विद्यार्थी का कर्तव्य होता है। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए आचार्या जी ने कहा कि गुरुकुल के आचार्य एवं अधिकारियों द्वारा आपके स्वर्णिम भविष्य का जो स्वप्न संजोया गया है उसे आपको पूरा करना है। इसके बाद गुरुकुल पौंधा-देहरादून के एक कम आयु के ब्रह्मचारी लक्ष्य ने एक गीत सुनाया। इस गीत के बोल थे ‘ऋषि दयानन्द तेरे गीत जमाना गायेगा, इतने हैं उपकार भुला न पायेगा।’
गुरुकुल पौंधा-देहरादून के प्राचार्य आचार्य डा. धनंजय आर्य ने अपने सम्बोधन में कहा कि हम संस्कारों की बात तो करते हैं परन्तु व्यवहारों में संस्कारों का आचरण नहीं करते। उन्होंने कहा कि व्यक्ति व समाज का निर्माण वैदिक संस्कारों को आत्मसात करने से होता है। वैदिक संस्कारों को यदि देश व समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी तो देश व समाज की प्रमुख समस्यायें दूर हो सकती हैं। अन्तरिक्ष यात्री गु्रप कैप्टेन शुभांशु शुक्ला और प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के मध्य हुए संवाद का उल्लेख कर आचार्य धनंजय जी ने कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री को बताया कि वह अन्तरिक्ष में अध्ययन कर रहे हैं कि कैसे मनुष्य का जीवन और अधिक सुखी व श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। आचार्य धनंजय जी ने कहा कि गुरुकुल में विद्याध्ययन के लिये प्रविष्ट होने वाले विद्यार्थी को ब्रह्मचारी कहा जाता है। यह मनुष्य का दूसरा जन्म होता है जहां आचार्य रूपी माता के गर्भ में विद्या पूर्ण करने तक सुरक्षित रहता है और वहां से स्नातक बन कर समाज में लौटता है। उन्होंने कहा कि गुरुकुलीय शिक्षा प्राप्त किया हुआ स्नातक वा ब्रह्मचारी ही सच्चा मनुष्य होने की संज्ञा को साकार करता है। उन्होंने आगे कहा कि ब्रह्मचारी ईश्वर, आत्मा एवं सृष्टि विषयक ज्ञान को प्राप्त होकर सत्य बोलता है और वैदिक शिक्षाओं के अनुसार सत्य धर्म का आचरण करता है। आचार्य धनंजय जी ने कहा कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य दुःखों से सर्वथा रहित मुक्ति वा मोक्ष को प्राप्त होना होता है। जीवन में केवल भौतिक पदार्थों व धन को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं है।
आचार्य धनंजय जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि वेदों के अध्ययन व वेदों की शिक्षाओं के आचरण से ही मनुष्य का जीवन श्रेष्ठ व आदर्श जीवन बनता है। उन्होंने कहा जिस ज्ञान व जिन कर्मों को धारण करने से मनुष्य का जीवन श्रेष्ठ व आदर्श जीवन बनता हैं उस ज्ञान व कर्मों को संस्कार कहते हैं। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी का उदाहरण देकर कहा कि हमारे गुरुकुलों के ब्रह्मचारी बम के समान हैं जो समाज से बुराईयों को दूर करने व श्रेष्ठ समाज का निर्माण करने की योग्यता रखते हैं। उन्होंने पूछा कि क्या हमारे देश के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के सभी विद्यार्थी श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त बन पायें हैं? आचार्य जी ने आर्यसमाज के अधिकारियों को अपनी सन्तानों को आर्यसमाजों द्वारा संचालित गुरुकुलों में भेजकर शिक्षित व दीक्षित करने की प्रेरणा की।
अपने सम्बोधन में स्वामी सत्यव्रतानन्द जी ने कहा कि कोई भी व्यक्ति बिना लाभ का विचार किये किसी कार्य मंज प्रवृत्त नहीं होता। उन्होंने कहा कि संस्कार मनुष्य के जीवन को दोषों को दूर करते हैं। सोलह वैदिक संस्कारों को उन्होंने मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ व उत्तम बनाने का उपाय बताया। स्वामी जी ने कहा कि संस्कार हमें इस लोक तथा परलोक में भी पवित्र बनाते हैं। उन्होंने कहा कि संस्कारों से मनुष्य का आत्मा पवित्र बनता है तथा संस्कारों को धारण करने से ही मनुष्य का जीवन सफल होता है। स्वामी सत्यव्रतानन्द जी ने कहा कि संस्कार मनुष्य को सब दुःखों से छुड़ाने वाले तथा मोक्ष को प्राप्त कराने वाले होते हैं। अपने वक्तव्य को विराम देतेहुए स्वामी जी ने सब ब्रह्मचारियों और श्रोताओं को सदाचरण की प्रेरणा की।
कार्यक्रम का संचालन प्रसिद्ध आर्य विद्वान् श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने बहुत योग्यता एवं उत्तमता से किया। उन्होंने तीन प्रकार के ब्रह्मचारी आदित्य, वसु और रुद्र का उल्लेख कर कहा कि 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला आदित्य ब्रह्मचारी होता है। 36 वर्ष तक ब्रह्मचर्य को धारण करने वाला वसु एवं 48 वर्ष तक ब्रह्मचर्य को पूर्णरूप से पालन करने वाला और समस्त वैदिक विद्या वा ज्ञान को अर्जित करने वाला रुद्र ब्रह्मचारी कहलाता है। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि संसार में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसे बन्धनों में नहीं बांध सकते। सभी मनुष्य स्वतन्त्रता चाहते हैं और इसके लिये आजीवन प्रयासरत रहते हैं।
अपने सम्बोधन में स्वामी योगेश्वरानन्द सरस्वती जी ने कहा कि हमें महर्षि दयानन्द जी के पद्चिन्हों पर चलकर उनके जैसे कार्यों को करना होगा। स्वामी जी ने हिन्दुओं के भविष्य पर अपने विचार व्यक्त किये और कहा कि भूतकाल और वर्तमान में हिन्दुओं के आचरण व व्यवहार को देखकर हिन्दू जाति का भविष्य सुखद प्रतीत नहीं होता। स्वामी जी ने हिन्दुओं को भविष्य का विचार कर जाति के हित में उचित निर्णय लेने को कहा। उन्होंने अधिक आयु में विवाह करने को भी हिन्दू समाज के लिए अहितकर बताया और हिन्दुओं के सन्तानहीन रहने वा एक बच्चे को ही जन्म देने की प्रवृत्ति की आलोचना की और कहा कि इससे हिन्दुओं का भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा। इस कारण से कुछ वर्षों बाद हिन्दुओं को मुगल काल और अंग्रेजों के समय जैसे दुःख झेलने पड़ सकते हैं। स्वामी जी ने कहा माताओं का काम सन्तानों को जन्म देना व सन्तानों व परिवार का निर्माण करना होता है। पति का काम धनोपार्जन कर परिवार की सभी आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। स्वामी जी ने हिन्दू समाज में जातिवादी संगठनों को हिन्दू हितों के लिए अहितकारी बताया। उन्होंने कहा कि हमें अपनी जाति का अभिमान छोड़कर मनुष्यता के गुणों को धारण कर अपने और परायों सबसे समान व्यवहार करना चाहिये। उन्होंने कहा कि हमारी पहचान आर्य वा हिन्दू के रूप में होनी चाहिये न कि किसी जातीय नाम से। स्वामी जी ने अपने वक्तव्य को समाप्त करते हुए कहा कि हम सब एक हैं, हमें संगठित होना है तथा हम सब वेदों के अनुसार ईश्वर के पुत्र व पुत्रियां हैं और हमारा नाम आर्य अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य है। स्वामी जी के बाद तपोवन गुरुकुलम् के प्रधान आचार्य श्री रवीन्द्र कुमार शास्त्री जी का प्रभावशाली उद्बोधन हुआ। उनके उपदेश की समाप्ति पर शान्ति पाठ हुआ और आर्यसमाज के जयघोषों के साथ 9 नये ब्रह्मचारियों के उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार का आयोजन सोल्लास सम्पन्न हुआ। आज के आयोजन में बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष व गुरुकुल पौंधा के ब्रह्मचारी उपस्थित थे। आश्रम के मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने सभी विद्वानों को ओ३म् का पट्का ओढ़ाकर और दक्षिणा देकर सम्मनित किया। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य