ओ३म्
-आर्यसमाज धामावाला देहरादून का सत्संग-
आर्यसमाज वह संगठन है जो जीवन के वास्तविक उद्देश्य को बताता है: डा. सत्यदेव निगंमालंकार
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हम आज आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के साप्ताहिक सत्संग में सम्मिलित हुए। यज्ञ में श्रीमती स्नेहलता खट्टर जी यजमान बनी थीं। पं. विद्यापति शास्त्री जी ने यज्ञ कराया। श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम के बालक और बालिकायें भी यज्ञ में सम्मिलित हुए। यज्ञ के पश्चात आर्यसमाज के सभागार में भजनों का कार्यक्रम हुआ। बाल वनिता आश्रम की चार कन्याओं ने एक भजन सुनाया जिसकी प्रथम पंक्ति थी ‘जिस मन में ईश्वर भक्ति है वह पाप करना क्या जाने‘। अगला भजन आर्यसमाज के धर्माचार्य आदरणीय पं. विद्यापति शास्त्री जी का हुआ। भजन के बोल थे ‘परम पिता परमेश्वर तुने किस भांति संसार रचा, स्वयं विधाता निराकार तुने जग कैसे साकार रचा।’ भजन अत्यन्त प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया गया जिससे सभी श्रोता भाव विभोर हो उठे। भजनों के बाद बाल वनिता आश्रम की 3 कन्याओं ने सामूहिक प्रार्थना प्रस्तुत की। सामूहिक प्रार्थना में परमेश्वर से कहा गया कि ‘हे प्रभु आप हमें ऐसी शक्ति दें कि हम आप को न भूलें। प्रभु आपने सृष्टि की रचना की है। आपकी रची इस सृष्टि को बड़े बड़े विद्वान भी समझ नहीं पाते हैं।’ सामूहिक प्रार्थना के पश्चात आर्यसमाज के पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन चरित का पाठ किया। आज का प्रकरण बालक मूलशंकर की बहिन की मृत्यु के प्रकरण से आरम्भ हुआ। इसके पश्चात प्रधान श्री सुधीर गुलाटी जी ने यजुर्वेद के एक मन्त्र ‘यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुपतस्य तथैवैति’ व उसका भाष्य वा अर्थ श्रोताओं को पढ़कर सुनाया।
सत्संग में हरिद्वार से पधारे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और प्रसिद्ध वैदिक विद्वान एवं सामवेद के भाष्यकार आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी के योग्य शिष्य डा. पं. सत्यदेव निगमालंकार जी का उपदेश हुआ। आचार्य जी ने कहा कि हम सब मन, आंख आदि पांच ज्ञान व पांच कर्म इन्द्रियों से सम्पन्न हैं। उन्होंने कहा कि यदि एक घण्टे के लिये अपनी आंखों पर पट्टी बांध लें तो हम अपना कोई भी कार्य सामान्य रूप से नहीं कर सकते। ऐसा करने पर हमें अपनी आंखों की उपयोगिता व महत्ता का ज्ञान होता है। आचार्य सत्यदेव निगमालंकार जी ने कहा कि हमारी आंखें चक्षु-देवता हैं। आचार्य जी ने आंखों की उपयोगिता बताने के लिये अनेक उदाहरण भी श्रोताओं को दिये जिससे चक्षु की महत्ता सभी श्रोताओं को विदित हो गई। उन्होंने कहा कि परमेश्वर ने यह जगत हमारे लिये बनाया है। आंखों की रक्षा के लिये परमात्मा ने आंखों के ऊपर पलक लगाई है। आचार्य जी ने कहा कि अहंकार मनुष्य का शत्रु है। अहंकार करने से मनुष्य की शक्तियां क्षीण वा नष्ट होती हैं इसलिये किसी भी मनुष्य को अहंकार नहीं करना चाहिये। इसको समझाने के लिये आचार्य जी ने पं. अम्बिका दत्त व्यास से जुड़ी एक कथा सुनाई जो एक के बाद एक करके सौ नामों को सुनकर उसी क्र्रम से सुना दिया करते थे, परन्तु अहंकार होने पर उनकी स्मरण शक्ति क्षीण हो गई थी। आचार्य जी ने कहा कि संसार में अग्नि, जल, वायु, पृथिवी और आकाश पांच जड़ देवता हैं। इनसे हमारा जीवन बनता व चलता है। इनमें से एक की भी अनुपस्थिति होने पर हमारा जीवन का अस्तित्व सम्भव नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि देवता किसी गुण विशेष को धारण करने के कारण कहलाते हैं। उन्होंने बताया कि हमारे माता-पिता भी हमारे देवता हैं। हमें उनकी आज्ञा पालन करने सहित उनको प्रसन्न रखने के सभी उपाय करने चाहियें।
आचार्य पं. सत्येदव निगमालंकार जी ने कहा कि अग्नि में यह शक्ति होती है कि वह सभी पदार्थों को जला सकती है। इस संदर्भ में उन्होंने यक्ष से संबंधित एक कथा को सुनाया। उन्होंने बताया कि यक्ष परमेश्वर का नाम है। जब यक्ष ने अग्नि को कहा कि तुम एक तिनके को जला कर दिखाओ तो वह उसे जला नहीं सकी। इसका कारण था कि अग्नि में जलाने की शक्ति अपनी नहीं है। इसी प्रकार से उन्होंने जल, वायु, आकाश व पृथिवी के उदाहरण देकर भी बताया कि देवताओं में जो शक्तियां हैं वह उनकी अपनी नहीं हैं अपितु यक्ष परमेश्वर की दी हुई हैं। आचार्य जी ने कहा कि यक्ष परमेश्वर ने इस कथा के अन्त में बताया है कि जिस देवता में जब अहंकार आ जाता है तो उसकी वह शक्ति क्षीण होती जाती है। इसलिये किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को अहंकार नहीं करना चाहिये।
आचार्य पं. सत्यदेव निगमालंकार जी ने कहा कि मनुष्य को स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिये। उन्हें चार वेदों सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करते रहना चाहिये। केनोपनिषद् का उल्लेख कर उन्होंने बताया कि इस उपनिषद् में चार अध्याय हैं। उन्होंने कहा कि केन का अर्थ ‘किसने‘ होता है। इस एक शब्द पर ही उपनिषद् के आचार्य ने पूरा ग्रन्थ लिख दिया है। उपनिषद बताती है कि परमेश्वर ने हमारी आंखें व अन्य सब इन्द्रियों को बनाया है। आंख जिससे देखती है व अन्य इन्द्रियां जिससे अपना अपना कार्य करती हैं वह शक्ति उन इन्द्रियों को परमात्मा से प्राप्त होती है। उन्होंने कहा कि कान के अन्दर सुनने की शक्ति तथा मन के अन्दर मनन करने की शक्ति है। यह शक्तियां परमात्मा से ही मनुष्यों को प्राप्त हुई हैं। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा ने शरीर के सभी अंगों को शक्तियां दी हैं। उसी की दी हुई शक्ति से मनुष्य बोलते, सुनते, सूंघते, स्वाद लेते, चलते व अन्यान्य कार्यों को करते हैं। आचार्य जी ने अहंकार के अनेक रूपों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि किसी भी प्रकार का अहंकार हमारी आत्मिक, बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों का क्षरण करता है। आचार्य जी ने केनोपनिषद के आधार पर कहा कि परमेश्वर इन्द्रियों से प्राप्त करने का विषय नहीं है। परमेश्वर को हम अपनी इन्द्रियों व मन आदि से प्राप्त नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि हमारे कान परमेश्वर के माध्यम से सुनते हैं। कानों में सुनने की जो शक्ति है वह कानों की अपनी शक्ति नहीं है अपितु परमात्मा की दी हुई शक्ति है। उन्होंने केनोपनिषद के आधार पर यह भी कहा कि ईश्वर का मन से मनन नहीं किया जा सकता। आचार्य जी ने कहा कि मन परमात्मा के माध्यम से मनन करता है। उस परमात्मा को हमें जानना चाहिये।
विद्वान आचार्य पं. डा. सत्यदेव निगमालंकार जी ने कहा कि मनुष्य की योनि पाकर ही हम ईश्वर को जान सकते हैं व उसे प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने ऋषि दयानन्द के शब्दों को उद्धृत कर कहा कि परमात्मा उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में मेरी बुद्धि को प्रेरित करे। उन्होंने कहा कि यदि मनुष्य योनि में आकर हम ईश्वर को जान लें तो हमारा जीवन सफल है अन्यथा बहुत बड़ी हानि है। उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन में ऐसे कर्मों को करे जिससे एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त हो। इससे बढ़कर अच्छा जीवन जीने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज वह संगठन है जो जीवन के वास्तविक उद्देश्य को बताता है। इन्हीं शब्दों को बोलकर आचार्य जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया।
आर्यसमाज के प्रधान श्री सुधीर गुलाटी जी ने विद्वान वक्ता पं. सत्यदेव निगमालंकर जी को इस ज्ञानवर्धक उपदेश को प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद दिया। उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण सूचनायें भी दीं। कार्यक्रम का संचालन आर्यसमाज के मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने किया। कार्यक्रम का समापन श्री विद्यापति शास्त्री जी ने शान्तिपाठ कराकर किया। आज के सत्संग में अनेक लोग सम्मिलित हुए। कुछ नाम हैं:- श्री सतीश आर्य जी, श्री धीरेन्द्र मोहन सचदेव जी, श्री सुरेश नय्यर जी, श्री ब्रह्मदेव गुलाटी जी, माता स्नेहलता खट्टर जी, श्री लक्ष्मण दास आर्य, श्री बसन्त कुमार जी, श्री प्रीतम सिंह आर्य, श्री देवेन्द्र सैनी जी, श्री मदन मोहन जी आदि। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य