कहां दुआएं कम होती हैं मां के किसी ख़जाने से ,
ये वो दौलत है जो बढ़ती जाती सदा लुटाने से ll
कहतीं थी मां ग़म की रातें कहां देर तक रहती हैं ,
सूरज डूब नहीं जाता है कुछ बादल छा जाने से ll
लेकर तो बैठो वो चेहरा ज़रा तसव्वुर में मां का,
चूक नहीं सकता आंखों का आंसू भी मुस्काने से ll
वृद्धाश्रम के निर्णय पर वो गिरी आसमां से पल में,
जो चिंतित रहती थी तेरे धरती पे गिर जाने से ll
यही सबब था मैं उसके आंचल में ही छुप जाती थी,
मां कहती थी प्यार जहां में बढ़ता सदा छुपाने से ll
ख़ूब परस्तिश करती थी ये नज़रे उसके पैरों की,
इक पल अलग नहीं होती थी मैं मां के सिरहाने से ll
परस्तिश यानी पूजा ,सम्मान
गौरी मिश्रा (नैनीताल)
राष्ट्रीय यूथ आईकॉन