यह प्रक्रिया उस इलाके के भूजल के संतुलन को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है। हो सकता है कि प्राचीन परंपरा में शिवलिंग पर जल चढ़ाने का असली मकसद इसी तरह भविष्य के प्रकृति-प्रकोप के हालात में जल को सहेज कर रखना हुआ करता हो। उस काल में मंदिरों में नाली तो होती नहीं थी, यह एक सहज प्रयोग है और बहुत कम व्यय में शुरू किया जा सकता है। यदि दस हजार मंदिर इसे अपनाते हैं, और हर मंदिर में औसतन एक हजार लीटर पानी प्रति दिन शिवलिंग पर आता है, तो गणित लगा लें हर महीने कितने अधिक जल से धरती तर रहेगी।
जयपुर के इस शिवमंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शिवजी की प्रतिमा भूमि के भीतर से अवतरित हुई है। चौड़ा रास्ता स्थित इस मंदिर का निर्माण 1784ईस्वीं में किया गया था। मुख्य शिवलिंग काले पत्थर का बना है। इसका व्यास 9 इंच है। इस मंदिर से पाराशर व्यास परिवार का संबंध है, और नित्य पूजा- अर्चना इसी परिवार द्वारा की जाती है।
मंदिर का फर्श संगमरमर का है। चौक के पास ही जगमोहन सभा हॉल है। इस हॉल में चार विशाल घंटे हैं, जिनमें प्रत्येक का वजन 125 किग्रा. है। यहां एक पीतल का नंदी बैल है, और गणोशजी की भी प्रतिमा है, जिनकी सूंड बाई ओर है। शायद इसी मंदिर से प्रेरणा पा कर जयपुर के ही ज्योतिषी और सामाजिक कार्यकर्ता पंडित पुरुषोत्तम गौड़ ने पिछले दो दशकों में राजस्थान के करीब 300 मंदिरों में जल संरक्षण ढांचे का विकास किया है। समाज सेवा और ज्योतिष के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए गौड़ को महाराणा मेवाड़ अवार्ड समेत कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है। गौड़ ने बताया कि 2000 में उन्होंने अपना जलाभिषेक अभियान शुरू किया। वे मंदिरों में 30 फुट गहरा गड्ढा बनवाते हैं, और शिवलिग से आने वाले पानी को रेत के फिल्टरों से गुजार कर जमीन में उतारते हैं। इसके अलावा, प्रतिमाओं पर चढ़ाए जाने वाले दूध को जमा करने के लिए पांच फुट के गड्ढे की अलग से जरूरत पड़ी। हिसाब लगाया गया था कि शहर में 300 से ज्यादा मंदिर हैं, जहां श्रावण महीने में रोजाना कम से कम चार करोड़ 50 लाख लीटर जल भगवान शिव और अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं पर अर्पित किया जाता है। इससे जल संरक्षण तो हुआ ही मंदिरों के आसपास रहने वाली कीचड़, गंदगी से भी छुटकारा मिला।
ठीक ऐसा ही प्रयोग लखनऊ के सदर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग मंदिर में भी किया गया। यहां भगवान शंकर के जलाभिषेक के बाद जल नालियों की बजाय सीधे जमीन के अंदर जाता है। कोई 160 साल पुराने इस मंदिर का 2014 में जीर्णोद्धार किया गया। बारह ज्योतिर्लिग की स्थापना उनके मूल स्वरूप के अनुसार की गई है। यहां करीब 40 फीट गहरे सोख्ते में सिर्फ अभिषेक का जल जाता है जबकि दूध और पूजन सामग्री का अलग इस्तेमाल किया जाता है। बेलपत्र और फूलों को एकत्रित कर खाद बनाई जाती है। चढ़ाए गए दूध से बनी खीर का वितरण प्रसाद के रूप में होता है।
यहीं मनकामेश्वर मंदिर में भी सोख्ते का निर्माण किया गया है। यहां चढ़े फूलों से अगरबत्ती बनाई जाती है। वहीं बेलपत्र और अन्य पूजन सामग्री को खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बड़ा शिवाला और छोटा शिवाला में चढऩे वाले दूध की बनी खीर भक्तों में वितरित की जाती है, और जल को भूमिगत किया जाता है। मध्य प्रदेश के शाजापुर जिला मुख्यालय पर स्थित प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढऩे वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते। इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है। इसके लिए केंचुए लाए गए हैं। इस खाद को पास के गांव वाले श्रद्धा से ले जा रहे हैं, और अपने खेतों में इस आस्था के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं कि देवी कृपा से उनकी फसल अच्छी रहेगी। यहां पर खाद बनाने के लिए मंदिर प्रांगण में चारचक्रीय वर्मी कंपोस्ट यूनिट का शेड सहित निर्माण किया गया है। मंदिर में नित आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा फूल और मालाएं चढ़ाई जाती हैं।
पहले उन फूल और मालाओं को नदी में फेंका जाता था जिससे नदी भी दूषित होती थी। मंदिर प्रांगण में वर्मी कंपोस्ट तैयार करने के लिए 12 फीट लंबाई 12 फीट चौड़ाई और 2.5 फीट गहरे चार टांके बनाए गए हैं, जिनके बीच जालीनुमा दीवार बनाई गई है। इनके ऊपर छाया के लिए टीन शेड भी बनाए गए हैं। सबसे पहले प्रथम टांके में मंदिर में इका होने वाले फूलों आदि का कचरा एकत्रित किया गया जिसे एक माह सडऩे देने के बाद उसमें केंचुए डाले गए। यह प्रक्रिया तीसरे एवं चौथे टांके के लिए भी अपनाई गई। इस चक्रीय पद्धति में चौथे महीने से बारहवें महीने तक हर महीने लगभग 500 किलो खाद मिलना प्रारंभ हो गई। इस प्रकार 8 महीनों में 4000 किलो जैविक खाद तैयार हो रही है। इस प्रकार रोज एकत्रित होने वाले फूल और मालाओं के कचरे से जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया सतत चलती रहेगी। तैयार होने वाली इस खाद में पोषक तत्वों और कार्बनिक पदाथरे के अलावा मिट्टी को उर्वरित करने वाले सूक्ष्म जीवाणु भी बहुतायत में होते हैं। यह खाद डालने से मिट्टी में समस्त प्रकार के पोषक तत्वों की मात्रा और उपलब्धता बढ़ती है, और मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है जिससे फसलों एवं पौधों का सर्वागीण विकास होकर उत्पादित फसल स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होती है।
मंदिर में चढ़ाए गए फूलों को खाद में बदलने का काम दिल्ली के मशहूर झंडेवालान मंदिर में भी हो रहा है। देवास, ग्वालियर और रांची के पहाड़ी मंदिरों सहित कई स्थानों पर चढ़ावे के फूल-पत्ती को कंपोस्ट में बदला जा रहा है। जरूरत है कि मंदिरों में पॉलीथीन थैलियों के इस्तेमाल, प्रसाद की बर्बादी पर भी रोक लगे। शिवलिंग पर दूध चढ़ाने के बनिस्बत उसेअलग से एकत्र कर जरूरतमंद बच्चों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। जानना जरूरी है कि भगवान को पुष्प या बेल पत्र चढ़ाने से भगवान के प्रसन्न होने की परंपरा असल में आम लोगों को अपने घर में हरियाली लगाने को प्रेरित करने का प्रयास था। विडंबना है कि अब लोग या तो बाजार से फूल खरीदते हैं, या दूसरों की क्यारियों से उठा लेते हैं। काश! हर मंदिर यह अनिवार्य करे कि केवल स्वयं के बगीचे या गमले में लगाए गए फूल ही भगवान पर चढ़ाए जा सकेंगे। ऐसा होता तो हर घर में हरियाली का प्रसार सहजता से हो जाएगा।